भगवान श्री पंचमुखी विश्वकर्मा सुयश चालीसा

श्री विश्वकर्मा सुयश यह विश्व करत नित गान।
ईश वास्तु अरू शिल्प के शीघ्र मिलत सब ज्ञान।।

ब्रह्मा प्रथम कीन्ह सुविचारा। जग रचना अति विषम अपारा ।।1।।
नारायण तव दीन्ह सहारा। अद्भुत ग्रह गति प्रमु विस्तारा ।।2।।
विष्णु भगवान की प्रेरणा से ब्रह्माजी ने जगत की रचना करने का विचार किया, लेकिन ब्रह्मा जी को जगत् की रचना करना बहुत ही कठिन अनुभव हुआ। तब स्वयं नारायण भगवान ने उन्हें सहयोग करते हुए ब्रह्माण्ड के सभी दिव्य ग्रहों की गति का विस्तार करके ब्रह्माण्ड की रचना की।
विश्वकर्मा नाम अति पावन। सुभवन सकल रचे मन भावन।।3।।
रचि पृथ्वी अरू पावन धामा। हिमगिरी मेरू विन्ध्य शुम नामा।।4।।
प्रभु का नाम श्री विश्वकर्मा अत्यधिक पवित्र है। उन्होंने संपूर्ण सुंदर भवनों की रचना की है, वे सभी के मन को अच्छे लगते है। पृथ्वी की रचना करके उस पर अनेक पवित्र स्थलों की स्थापना प्रभु ने की, पृथ्वी की सुन्दरता एवं संतुलन के लिए श्री विश्वकर्मा ने हिमालय, सुमेरू, विन्ध्याचल इत्यादि सुन्दर नाम वाले विशाल पर्वतों की उत्पत्ति की।
चौदह भवन हि भूमि विमागा। सत्यलोक हिय शुचि अनुरागा।।5।।
विधि भुवन प्रभु जग में कीन्हा। कामधेनु सम शुभवर दीन्हा।।6।।
विश्व में भूमि को चौदह खण्डों में विभाजित करके भगवान श्री विश्वकर्मा ने अनेक लोकों की स्थापना की, लेकिन उनके हृदय में शुद्ध स्नेह सत्य लोक से ही है। प्रभु विश्वकर्मा जी ने जगत् के लोगों को अनेक हीरे रत्न मणि पारस पत्थर जैसे दिव्य पदार्थ प्रदान किए हैं।
कल्पवृक्ष और कामधेनु गाय के समान श्रेष्ठ इच्छित वरदान दिये हैं।
विश्वकर्मा हि प्रकृति नियन्ता। क्षिति जल पावक पवन अनन्ता ।।7।।
पाँच तत्व प्रभु जगत् विधाता। अखिल चराचर जीवन दाता ।।8।।
श्री विश्वकर्मा जी संपूर्ण प्रकृति के कुशल निर्माता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्वों का विधान करने वाले रचयिता प्रभु हैं, वे ही संपूर्ण जड़ चेतन को सुन्दर जीवन प्रदान करने वाले हैं।
वेद पुराण नित करत प्रशंसा। स्वयं विराजत धवलित हंसा ।।9।।
राजा पृथु आराधन कीन्हा। जन मंगल वर पावन दीन्हा।।10।।
वेद और पुराण भगवान विश्वकर्मा की निरंतर प्रशंसा करते हैं। प्रभु उज्ज्वल हंस की सवारी करते हैं। राजा पृथु ने भगवान विश्वकर्मा जी की भक्ति की थी। प्रभु ने प्रसन्न होकर राजा को जन कल्याणकारी वरदान दिया था।
सुर मुनि आरत गिरा पुकारा। सुरद्रोही दानव संहारा ||11||
नारायण सत् चित आनन्दा। उपजाये जग फल अरू कन्दा।।12।।
देवताओं और ऋषि मुनियों ने करूण वाणी से भी विश्वकर्मा को पुकारा तब देवताओं के अनेक शत्रु राक्षसों का अन्त किया। श्री विश्वकर्मा साक्षात् नारायण भगवान का सत्य, चेतन और आनन्द स्वरूप हैं। सभी जीवों के लिए संसार में फल और कन्द की उत्पत्ति की।
अंधक शुंभहि समर भंयकर। भूतल घायल शिव प्रलयंकर ||13||
देखि दशा शिव तव प्रभु आवा। एहि विधि शंकर मान बढ़ावा।।14।।
एक बार भगवान शंकर और अंधक के मध्य सभी को भयभीत करने वाला युद्ध हुआ, इसमें दुष्टों का विनाश करने वाले महादेव घायल होकर भूमि पर गिरने लगे, तब श्री विश्वकर्मा जी ने इस अवसर पर प्रकट होकर शंकर भगवान की सहायता की और उनका मान-सम्मान बढ़ाया।
वास्तुदेव संग बद्रि निवासा। योग ज्ञान तप परम प्रकासा।।15।।
श्रद्धा भाव इलाचल नारी । इला विनय सुनि भव उपकारी ।।16।।
श्री विश्वकर्मा ने अनेक वर्षों तक वास्तुदेव जी के साथ में बद्रीनाथ धाम में निवास करते हुए योग, ज्ञान और तपस्या के दिव्य प्रकाश से संपूर्ण जगत् को प्रकाशमान किया। इलाचल की पत्नी के हृदय में श्री विश्वकर्मा जी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा का भाव था, संसार का कल्याण करने वाले प्रभु ने इलाचल की पत्नी इला की प्रार्थना सुनी।
प्रभु की कृपा भई जब भारी। सुखमय सदा नगर नर नारी ।।17।।
पाँच पुत्र उपजाये तब मुख से। प्रकट किए जग हित अति सुख से।।18||
इलाचल नगर पर विश्वकर्मा जी की अत्यधिक कृपा हुई, जिससे नगर के सभी स्त्री पुरुष सदैव सुखमय जीवन यापन करने लगे। श्री विश्वकर्मा जी ने अपने पाँच मुँह से पाँच पुत्रों को परोपकार की भावना से उत्पन्न किया।
विद्या दीन्ही शिल्पकला की। दिव्य कीर्ति भव पंच लला की।।19।।
मन मय, त्वष्टा, यज्ञर शिल्पी। पाँच पुत्र मिल जगती कल्पी ।।20||
प्रभु ने स्वयं अपने मानस पुत्रों को शिल्प और कला का संपूर्ण ज्ञान दिया, इस संसार में इन पाँचो पुत्रों की कीर्ति अद्भुत है। श्री विश्वकर्मा के पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और यज्ञदेव ने इस जगत में नवीन स्थापना की। इन्हीं से संपूर्ण जातियों एवं वर्णों का विकास हुआ।
जासु बीज मन्त्रहि अति भावै। प्रभुहि कृपा सुख सद्गति पावै।।21।।
व्याध सहज प्रभु भक्ति कीन्ही। उर दर्शन दे मुक्ती दीन्ही।।22||
श्री विश्वकर्मा के नाम का बीज (मूल) मंत्र जिसे अत्यधिक अच्छा लगता है, उस व्यक्ति को प्रभु की कृपा दृष्टि से सुखा एवं सद्गति की प्राप्ति होती है। अधम व्याघ ने (इसी मूल मंत्र से) विश्वकर्मा जी की स्वाभाविक भक्ति की, तो उसके हृदय में अपना रूप दिखाकर, अद्मुत मोक्ष प्रदान किया।
निज बल ऋषि मुनि हरि नहिं पावा। खलहि कृपा करि रूप दिखावा।।23।।
रत्ना कन्या गुण बहु शीला। रचि बिवाह रवि सन किए लीला।।24।।
प्रभु की महिमा विचित्र है, एक ओर तो बड़े-बड़े ऋषि और मुनि अपने ज्ञान बल व तप बल से उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते हैं वही दूसरी और अज्ञानी व्यक्ति को प्रभु अपना दिव्य रूप दिखाते हैं। अनेक गुणों और आचरण से युक्त रत्ना नाम की उनकी मानस पुत्री हुई जिसका विवाह सूर्य के साथ करके प्रभु ने जगत् में सुन्दर लीला दिखाई।
प्रगटै प्रभु दो सृत चखधारा। तेज पुंज बल शील अपारा ।।25।।
अति क्रोधानल मुनि दुर्वासा। सुत सब कीन्ह विकार विनासा ।।26||
मानस पुत्री रत्ना की विदाई के समय प्रभु की आँखों से दो बूंदे आँसुओं की गिरने पर उनसे शक्तिशाली, प्रतापी, अत्यधिक शील वाले दो पुत्र उत्पन्न हुए, इन्हीं पुत्रों ने अत्यधिक क्रोध की अग्नि से युक्त रहने वाले अभिमानी, विश्वामित्र और दुर्वासा के सभी विकारों का अन्त किया।
दिनकर तें रण प्रियव्रत ठाना। उपजें सिन्धु द्वीप बहु नाना।।27||
भुवन दिवस सम निशि उजियारा। तेहि कारण व्याकुल संसारा।।28||
सूर्य देव से राजा प्रियव्रत ने स्पर्धा करते हुए अपने रथ से उनका पीछा करने की प्रतिज्ञा की, जिससे पृथ्वी पर अनेक महाद्वीप अनेक सागर बन गये, उस समय रात्रि में भी दिन के समान उजाला रहने लगा, जिसके कारण संसार में रहने वाले सभी लोक दुःखी हो गए।
सुर मुनि ठाढै निज कर जोरी । नाथ सुनो अब विनती मोरी।।29।।
मुदित प्रताप श्री विश्वकर्मा। प्रकृति प्रवृत्त सनातन धर्मा ।।30।।
सभी के दुःख का निवारण करने के लिए स्वयं देवताओं और मुनियों ने विश्वकर्मा जी के समक्ष खड़े होकर करबद्ध प्रार्थना करते हुए कहा -हे प्रभु! आप हमारी विनती सुनें। इस प्रकार श्री विश्वकर्मा भगवान प्रसन्न हुए, इनकी प्रसन्नता से प्रकृति में दिन-रात सनातन धर्म के अनुसार होने लगे।
ऋषि अंगिरा नृपहि समझाया। चित्रकेतु तेहि समझ न पाया।।31।।
ताते अति दारूण दुख पाया। ऋषि प्रेरित प्रभु शरण आवा।।32।।
विश्वकर्मा सुयश मन भाया। छूटत सकल माह अरू माया।।33||
अंगिरा ऋषि ने चित्रकेतु राजा को भगवान विश्वकर्मा का रहस्य समझाने का प्रयास किया, लेकिन राजा को समझ में नहीं आया, जिससे उसे अपार दुःख हुआ अंत में वह अंगिरा ऋषि की प्रेरणा से प्रभु की शरण में आया। प्रभु की शरण में आने पर श्री विश्वकर्मा जी का सुयश उसके मन को अच्छा लगा परिणामस्वरूप वह मोह और माया के सभी बंधन से मुक्त हो गया।
धर्म सुशील प्रमंगद राजा। प्रजा वत्सलहि जन हित काजा।।34||
रोग दोष नृप विकल सरीरा। राज सुखहि तन दुख गंभीरा।।35।।
दिवस अमावस तप व्रत कीन्हा। हरे रोग प्रभु शुभ वर दीन्हा।।36।।
प्रमंगद राजा अच्छे शीलवाला एवं धर्म के अनुसार आचरण करने वाला था, वह अपनी प्रजा के कल्याण एवं हित के लिए कार्य करता लेकिन राजा का शरीर रोग के कारण पीड़ित था। राजा के भाग्य में राजसुख था, फिर भी रोग के कारण शरीर का दुःख अधिक था। उसने अमावस्या के दिन तपस्या और व्रत किया। विश्वकर्मा जी ने प्रसन्न होकर उसके सारे रोग दूर किये और उसे अच्छा वरदान दिया।
जह प्रभु बसहि रमा करि वासा। अखिल अलौकिक भुवन प्रकाशा।।37।।
आदि नारायण विश्वकर्मा। प्रकृति रूप श्री संदर कर्मा।।38।।
जहाँ पर भगवान श्री विश्वकर्मा जी निवास करते हैं, वहाँ सदैव लक्ष्मी जी विराजमान रहती है। संपूर्ण विश्व में उनका ही अमृत (दिव्य) प्रकाश है। इस संसार में आदि नारायण ने ही विश्वकर्मा जी के रूप में अवतार लिया है तथा साक्षात् लक्ष्मीजी ने प्रकृति का रूप धारण करके जगत् के समस्त सुन्दर कर्मों का निष्पादन किया है।
युगल स्वरूप प्रभु भव मन्दिर। परम धाम यह अतिशय सुन्दर।।39।।
प्रभु चरित पावन जो गावै। सब जन शीघ्र मोक्ष पद पावै।।40।।
यह संसार ही श्री विश्वकर्मा एवं विरोचना देवी के युगल स्वरूप का मंदिर है। इस संसार रूपी मंदिर में श्री विश्वकर्मा एवं विरोचना देवी का युगल स्वरूप सुशोभित है। यह पवित्र स्थान श्रेष्ठ और अत्यधिक सुन्दर है। भगवान श्री विश्वकर्मा जी के पवित्र चरित्र का गान करने वाले सभी व्यक्ति शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति करते हैं।

श्री अष्टाक्षर मंत्र शुभ, नित्य करत जन जाप।
जीव उधारै मंत्र यह, नहीं व्यापै सन्ताप।।
(ॐ विश्वकर्मणे नमः)